Saturday, January 02, 2010

देखो नया साल फिर आ गया है



दो गठरियाँ उठाये

घूम रहा था

दर बदर,

एक जिम्मेदारियों की,

उनको जल्दी से

निपटा लेने को

ओर दूसरी

उमीदों की

इस दुनिया से कुछ पा लेने को।

लेकिन दोनों गठरियाँ,

हल्की होने की बजाये,

भारी होती जा रही थी,

दिन ब दिन 


न।
कुछ राहगीर भी मिले


राह में,



किसी को था


मेरे काम से मतलब


कुछ ढूँढें


मेरे नाम के मतलब 


लेकिन मिले


कुछ फ़रिश्ते भी


जिनको था 

मेरे अन्दर 


इंसान से मतलब।


तभी पीछे से

किसी ने 


आवाज़ लगाई

" अरे, ज़रा बैठो



तनिक सांस ले लो

कुछ पी लो



कुछ खा लो

ज़रा नाच लो



ज़रा गा लो

देखो तो



पुराना साल गुज़र चुका है


और नया साल


फिर आ गया है"।



मैं चंद लम्हों के लिए रुका 


कुछ पीया


कुछ खाया


थोडा हंसा


थोडा गाया


ओर चल दिया


नए साल के साथ


फिर से


इक लम्बे सफ़र पर

दो गठरियाँ उठाये 


!! आप सब को नए साल की ढेरों शुभ कामनाएं !!



Thursday, January 01, 2009

साल, महीने तो गुज़र जाते हैं



साल, महीने तो गुज़र जातें हैं

वक़्त के साथ,

वह तो कुछ लम्हें हैं

जो अटक जाते हैं

हलक में

और फ़िर काटे नहीं कटते हैं

उम्र भर

Saturday, November 15, 2008

रोज़ मिलते हें लोग


रोज़ मिलते है लोग

पास आते हैं

हँसते हैं, खेलते हैं

कुछ समझते भी हें

लेकिन ,

कभी इस तरह से

मिलता है कोई

छू जाता है

दिल के तारों को

गूँज उठता है संगीत फिर

गीत बन जाते हें बातों के

यह ज़िंदगी फ़िर लगती है

इक ग़ज़ल

और सारी दुनिया

इक महफिल

Thursday, November 13, 2008

ओ सुबह

हर दिन शुरू होता है

तेरे नाम के साथ

लालिमा बिखेर देती है

इक हल्की सी मुस्कान तुम्हारी

खिल उठते हैं फूल

चहक उठते हैं पंछी

फ़ैल जाता है उजाला

खुलती हैं जब आंखें तुम्हारी

और फ़िर

दिन चलते चलते 


थक जाता है 

ढल जाता है

सो जाता है


तुम्हारी याद लेकर

रात करवटें बदलती है

बस यही इक आस लेकर

की आओगी तुम

मुस्कुराती

इक नया सुहाना दिन

अपने साथ लेकर

ओ सुबह !!!

Friday, July 04, 2008

तुम हो एक हवा का झोंका

तुम हो एक हवा का झोंका

आओ के ना आओ तुम

कब से आंखें तरस रही हैं

अब तो दरस दिखाओ तुम


बाग़ बगीचे खिल उठते हैं

आहट तेरी पाते ही

फ़िर खामोशी छा जाती है

बस तुम्हारे जाते ही


सूख गयी हैं लब पंखुडियाँ

ओंस ज़रा टपकाओ तुम

मारू थल में पड़ा हुआ हूँ

आके प्यास बुझाओ तुम


बहुत हो गयी अब जुदाई

काटा बहुत अकेलापन

अब तो तुम ऐसे आ जाओ

फिर ना वापस जाओ तुम


तुम हो एक हवा का झोंका

आओ के ना आओ तुम

Thursday, October 11, 2007

ए सफारी

एय सफारी,

तू थी ड्रेस बड़ी नियारी


पहना करते थे तुझे


सब अधिकारी

लेकिन तुझमें थी कुछ


अपनी ही खामियां


जिसकी वजह से


तू गयी थी नकारी

गर्मियों की धूप में


पसीने के दाग


दूर से चमकते थे


आर्म पिट्स के पास

तू कभी जो ड्रेस थी


ऊंचे ओह्देदारों की


बन गयी पहचान अब


गुरबे ओर गवारों की

हाँ यह ज़रूर है


तू जचती थी कुछ पर


चाहे वो काबिल हो या फिर


हो कोई अनाड़ी

लेकिन अमूमन यह ही


देखा था हमने


तुने अच्छे अच्छों की थी


शख्सीयत बिगाडी

इस लिए ओह पियारी


अब खत्म अपनी यारी


तुझे अलविदा हमारी


एय सफारी

Friday, August 24, 2007

जागो भारत के वीरो

(यह पंक्तियां मेरे पिता जी ने 1962 के चीन युद्ध के समय लिखी थी। नौं साल बाद 1971 के पाकिस्तान युद्ध के समय, मैंने एक लेख लिखा था जिसे मैंने शिमला रेडियो स्टेशन पर पढ़ कर सुनाया था। लेख का अंत मैंने इन पंक्तियों से ही किया था। आज के माहोल में भी यह पंक्तिआं कितनी सही बैठती हैं )

जागो भारत के वीरो

ज़माना है आज़मायिश का

छोड़ दो ऐशो-इशरत

कि समय नही नुमायश का


तोड़ दो सर दरिंदों के

के मुड़ कर ना इधर आयें

ऐसा वार करो उन पर

की दुम्ब दबा कर भाग

Saturday, August 04, 2007

जब पहली बार देखा था तुम्हें

जब पहली बार देखा था तुम्हें

तुम घिरी हुई थी

अपनी सखियों में

और मैं अपने संबंधियों में

एक हल्की सी मुस्कान थी

तुम्हारे चहरे पे

शायद थोडी घबराहट भी

और उसी घबराहट में तुम

कभी उंगली पर दुपट्टा लपेटती ]

और कभी

उँगलियों को दबाती

अपने हाथों से ।

कितना जीं चाहा था

उन हाथों को उसी दम

अपने हाथों में ले लेने का और

मन ही मन वादा कर दिया था

उन हाथों को जीवन भर

थाम के रखने का

Saturday, July 28, 2007

कभी आसमां सा हल्का, कभी जमीं सा भारी

वो आँखें

कनखियों से देखती

लम्बी सफ़ेद अंगुलियां

बालों को बार बार

कानों के पीछे संवारती

राह चलते कदम

कभी आगे कभी पीछे

कभी तेज़ कभी धीमे

एक अजीब सी कशिश थी वो

और खिंचता चला गया था मैं


फिर डूब गया उन आँखों में

उलझ गया उन बालों में

उड़ता रहा बादल की तरह

हवा के उस झोंके के साथ

कभी लगा शिखर पर हूँ

और फिर अगले ही पल

गिर गया ज़मीन पर

होता रहा इक एहसास

कभी आसमां सा हल्का

और कभी जमीं सा भारी

Saturday, May 19, 2007

गुनहगार

( यह कहानी मैंने 1969 में लिखी थी जब की मैं दसवीं कक्षा में पढता था . हमारे पड़ोसी मिस्टर सहगल, जो की अपने ऑफिस के काम से काफी यात्रा करते थे , ने एक बार हमे आ कर बताया की कैसे एक बस ड्राइवर ने बस के एक मुसाफिर का चाकू से ख़ून कर दिया था . मैं काफी दिन तक उनके द्वारा सुनाई गयी इस घटना के बारे मैं सोचता रहा कि ड्राइवर ने मुसाफिर की ह्त्या क्यूँ की होगी । फिर मेरी कल्पना को पंख लगे और मैंने यह कहानी लिख ने की कोशिश की । ) 
बस में इतना शोर था की अपने पास बैठे यात्री की आवाज़ भी ठीक से समझ पाना कठिन था । तरह तरह की आवाजें उठ रही थी । ड्राइवर और कंडक्टर दोनों टौर्च लिए बस के नीचे कुछ मोआइना कर रहे थे । थोड़ी देर बाद उन्हों ने आकर एलान कर दिया की बस का एक्सल टूट गया है और बस आगे नही जा सकती । इतना सुन कर सब मुसाफिरों के चहरे उतर गए, खास कर जिनके साथ औरतें और बच्चे भी थे । रात के 9 बज चुके थे । यह बस मनाली से शिमला जा रही थी और शिमला से चालीस किलोमीटर पीछे ही खराब हो गयी थी । आस पास का इलाका सुन सान था । सब यात्री अपना अपना सामान लेकर सड़क के किनारे इस ताक में खडे हो गए की आती जाती गाड़ियों से लिफ़्ट माँग सकें । कभी कबार एक आध कार या जीप गुज़र जाती थी । लेकिन रुकता कोई भी नहीं । लगभग आध घंटे की इंतज़ार के बाद एक बस आयी । एक यात्री ने भीड़ में से निकल कर उसे हाथ दिखाया . बस थोडा धीरे हुई और कुछ दूरी पर जा कर रूक गयी . सब मुसाफिरों में एक ख़ुशी की लहर दौड़ गयी . वे सब ऐसे चिल्लाये जैसे उनकी टीम ने कोई मैच जीत लिया हो . ड्राइवर बस में से उतर कर लोगों की तरफ आया तो मानो उन्हें यूँ लगा जैसे की भगवान् का साक्षात् अवतार हो . उसने उस आदमी को थोडा ध्यान से देखा जिसने आगे बढ कर बस को हाथ दिखाया था ।
“ हाँ भयी क्या बात है , क्यूँ खडे हो तुम सब इस बस से उतर कर .” उसने इस लहजे में पूछा जैसे की चोरों से कोई पुलिस वाला बात करता है . इतने में पहली बस में से ड्राइवर और कंडक्टर भी उतर कर आ गए .

“ अरे यार ये कमबख्त एक्सल टूट गया है, तुम इन सवारियों को शिमला तक पहुंचा दो तो बड़ी मेहरबानी होगी ।” पहली बस के ड्राइवर ने दुसरे ड्राइवर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा .

“ अरे कोई बात नहीं , बैठ जाओ भयी सारे .”

सब सवारियां अपना अपना समान ले कर बस में चढ़ गयी जिसमे पहले से भी कुछ यात्री बैठे थे ।

रास्ते में एक चाय की दुकान के सामने बस रुकी और कुछ यात्रिओं ने चाय पी और छोटे बच्चों को पानी वगैरा पिला कर वे एक बार फिर से चल पडे । शिमला पहुंच कर बस विक्टरी सुरंग के सामने आकर रूक गयी और ड्राइवर ने सवारियों को उतर जाने के लिए कहा . सब यात्री ड्राइवर का शुक्रिया अदा करते हुए निकलने लगे की अचानक ड्राइवर ने उस आदमी को कालर से पकड़ लिया जिसने भीड़ में से निकल कर बस को सबसे पहले हाथ दिखाया था . वह आदमी ड्राइवर से कालर छुडा कर भागा लेकिन ड्राइवर ने उसे भाग कर ऐसे पकड़ लिया जैसे बिल्ली चूहे को दबोच लेती है . ड्राइवर ने अपनी बेल्ट के नीचे से चाकू निकाला और देखते ही देखते आठ दास दफा उस आदमी के पेट में चाकू से वार करता चला गया . वहाँ मोजूद यात्री यह देख कर भोंचक्के से रह गए कि यह देवता स्वरूप ड्राइवर ने अचानक राक्षस का रुप क्यूँ धारण कर लिया था और डर कर इधर उधर भागने लगे । कंडक्टर को भी समझ में नही आ रहा था कि अचानक ड्राइवर को क्या हो गया था । वह यात्री ख़ून से लथपथ ज़मीन पर पडा था और ड्राइवर बिना वहाँ से भागने की कोशिश किये थोड़ी दूर ज़मीन पर यूँ बैठ गया मानो दिन भर का थका हारा मजदूर आराम करने के लिए बैठ जाता है ।

***

अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था . ड्राइवर बलराज कटघरे में खङा था . जज साहिब सामने पडे कागज़ों पर कुछ लिख रहे थे . उन्हों ने अदालत को संबोधित करते हुए कहा

“ सभी गवाहों और मुजरिम के खुद के बयानात से ये साबित हो गया है की बलराज ने जोगिन्दर का ख़ून चाकू के वार से लोगों की भीड़ के सामने निर्मम तरीके से किया है . लेकिन अदालत को यह ताज़ुब है की सड़क पर मुसीबत में फंसी बस की सवारियों की मदद करने के बाद बलराज ने बिना किसी लडाई झगडे के जोगिन्दर की ह्त्या क्यों की . अदालत यह जानने की इच्छुक है .”

अदालत में एक बार फिर से सन्नाटा छा गया . वहाँ बैठे सभी की नज़रें बलराज पर लगी हुई थी . बलराज की आँखों में कोई पछतावा और माथे पर कोई शिकन नहीं थी . उसका चहरा एक दम शांत लग रहा था .

“ जज साहिब ,” बलराज ने कहना शुरू किया . "मैं चाहता तो नहीं था की इस भद्दी कहानी को अपनी जुबां पर लाऊँ लेकिन आप सुनना ही चाहते है तो शौक़ से सुनिये .”

“वह, यानी जोगिन्दर हमारे शहर ही में रहता था और हमारे घर अक्सर आया करता था . इतने बडे शहर में उस से वाकफियत का एक ही कारण था की वह हमारे गाँव का रहने वाला था . हमारे परिवार में मैं , मेरी बहन सुमन और मेरे माता जीं थे . पिता जीं की बहुत साल पहले एक हादसे में मौत हो गयी थी . माता जीं को थोड़ी बहुत पेंशन मिलती थी जिससे घर की रोटी चल रही थी . मैं बी ए पास कर चुका था और छोटी मोटी नौकरी की तलाश में भटक रहा था . सुमन की उमर शादी के काबिल हो चुकी थी . माता जीं ने फैंसला किया की सुमन को कुछ दिन के लिए नानी जीं के पास भेज दिया जाये और फिर कोई अच्छा सा रिश्ता देख कर उसके हाथ पीले कर देंगे . जोगिन्दर भी उन दिनों गाँव जाने की तयारी में था इसलिये सुमन को उसके साथ भेज दिया .”

“ दुसरे दिन का अखबार देखते ही मेरी आँखों का आगे अँधेरा छा गया . अखबार के तीसरे पन्ने पर एक खबर छपी थी जिसमें मोटे अक्षरों में लिखा था ' एक जवान लडकी को रेल के एक डिब्बे में बेहोश पाया गया है . मेडिकल रिपोर्ट से पता चला है की उसके साथ बलात्कार हुआ है और फिर उसका गला दबा कर उसकी जान लेने की कोशिश की गयी है . लडकी की फोटो छापी जा रही है . जो भी उसे पहचाने फ़ौरन नीचे लिखे पते पर पहुंचे।' अखबार में छपी फोटो सुमन की थी . माता जीं ने तो यह खबर सुनते ही दीवार पर माथा पटक दिया . पिता जीं की मौत के बाद उनका दिल बहुत कमजोर हो गया था । कुछ पडोसी उन्हें उठा कर अस्पताल ले गए । एक पडोसी से कुछ रूपये उधार ले कर मैं अखबार में दिए गए पते पर पहुंचा । सुमन का वार्ड ढूँढ़ते देर ना लगी । मैं सुमन के बेड के पास बैठा बार बार यह सोच रहा था की किस दरिन्दे ने किया होगा मेरी बहन का यह हाल । तभी सुमन को धीरे धीरे होश आना शुरू हुआ । उसने कुछ बोलने की कोशिश की लेकिन उसकी जुबां लड्खडा रही थी मैं सिर्फ़ इतना ही समझ पाया
की उसने खुद को बचाने की बहुत कोशिश की और फिर सुमन की जुबां पर एक बार जोगिन्दर का नाम आया और उसका सर एक तरफ लुडक गया। डाक्टर ने उसकी जांच की और फिर सर लटका कर वहां से चला गया। वहां मोजूद पुलिस अधिकारी ने मुझ से सवाल पूछने शुरू कर दिए । मैंने सब कुछ सच सच बता दिया ।

अगले दिन मैं सुमन के निर्जीव शरीर को लेकर जब वापस पहुंचा तो पता चला की माता जीं भी अस्पताल में दम तोड़ चुकी थी ।

एक साथ दो चिताओं को आग दे कर मेरे दिल में भी शोले भड़कने लगे । मेरी आंखों में आंसुओं की जगह ख़ून था । पडोसी मुझे तरह तरह की सांत्वना दे रहे थे । लेकिन मेरे सामने एक ही इरादा था, उस कमीने को तलाश कर उसे सज़ा देना ।

उसके बाद मैं अपनी बूढी नानी के पास चला गया । मैंने जोगिन्दर के गाँव जा कर उसकी पूछ ताछ की लेकिन उसका किसी को कुछ पता नहीं था । वो शायद जानता था की पुलिस उसे तलाश रही होगी । लेकिन पुलिस से पहले मैं उसे खोज कर सज़ा देना चाहता था . और एक दिन ऐसे ही सोचता हुआ चला जा रहा था की एक ट्रक के नीचे आते आते बचा । ट्रक ड्राइवर ने वक्त पर ब्रेक लगा दी थी लेकिन फिर भी टकरा कर गिर गया था और माथे पर थोड़ी सी चोट आ गयी थी । उसने उतर कर मुझे ट्रक में बिठा लिया । मैंने उससे आप बीती कह सुनाई । उसने मुझे सलाह दीं की मैं ड्राइविंग सीख लूं । कुछ महीनो में मैं ट्रक चलाना सीख गया और उसकी मदद कराने लगा । मूझे एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी में बस ड्राइवर की नौकरी मिल गयी । चार पांच साल मैंने बस चलायी और अपने मुजरिम की तलाश भी जारी रखी।"

यह कह कर बलराज थोडा रुका । अदालत में इस क़दर चुप्पी छाई हुई थी की ट्यूब लाइट की आवाज़ भी आसानी से सुन रही थी ।

" जज साहब " बलराज ने फिर कहना शुरू किया ।
" पूरे पांच साल के बाद उस रात जब मैंने उसे भीड़ मे से निकल कर बस को हाथ दिखाते हुए देखा तो मैं उसका घिनोना चहरा झट पहचान गया लेकिन मेरी वेश वूशा बिल्कुल बदली होने की वजह से वह शायद मुझे नही पहचान पाया । बदले के शोले जो की मेरे सीने में दहक रहे थे वो आग में तब्दील हो गए । जो कानून , जो पुलिस उसे ना खोज सके वो मेरी आंखों के सामने खङा था। उसे देखते ही मेरे ज़ख़्म ताज़ा हो गए और मेरी बहन और मेरी माँ की तस्वीर मेरी आंखों के सामने नाचने लगी । उसके बाद जो कुछ मैंने किया वो अदालत जान चुकी है ।"
सरकारी वकील उठकर कुछ कहने ही वाले थे की उन्हें बीच में ही रोक कर बलराज ने फिर कहना शुरू किया
" जज साहब, "
जज साहब ने वकील को बैठने का इशारा किया
" यह ठीक है की मैंने कानून को अपने हाथ में लिया है लेकिन आपका कानून उसे ज़्यादा से ज़्यादा फांसी या उमर क़ैद की सज़ा दे देता लेकिन उस से मेरे दिल में दहक रही आग शांत नहीं होती . कानून की निगाहों में मैं भी गुनहगार हूँ लेकिन अब मुझे अगर फांसी का फंदा भी मिलेगा तो भी मैं उसे चूम लूंगा "

इसके बाद सरकारी वकील ने उठ कर कुछ कहा और फिर जज साहब ने . बलराज को कुछ भी सुनाई नही दिया । उसकी आंखों के सामने तो बस उसकी माँ की तस्वीर नाच रही थी और कानों में बहन की चीखें गूँज रही थी। उधर जज साहब अपना फैंसला लिख चुके थे और लिखने के बाद उनहोंने अपनी कलम दो टुकड़ों में तोड़ दीं थी.

Monday, May 14, 2007

चुनौती

1992 में हमारे बोम्बे ऑफिस में एक कहानी पूर्ती प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी । कहानी का आधा भाग ऑफिस की तरफ से मिला था जिसका सार नीले रंग में दिया गया है । आधी कहानी को पूरा करने के लिए मेरे द्वारा लिखा गया हिस्सा काले रंग में है मुझे इस प्रतियोगिता में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ था।

कहानी का पहला भाग जो की आफिस से मिला :-

अभी कुछ दिन पहले ही तो नेहा की सगाई खन्ना परिवार में हुई थी. नेहा एक बहुत होन हार लडकी थी. वह पढ़ाई लिखायी में तो होशियार थी ही इसके साथ साथ अपने कालेज में हर कार्यक्रम में बढ चढ़ कर हिस्सा लेती थी. सभी अध्यापकों की चहेती नेहा एक बार फिर से बी ए फ़ाइनल में अव्वल दर्जे पर पास हुई थी. वह अभी और पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन खन्ना परिवार के वह इतना मन भा गयी थी की उन्हों ने गुप्ता जीं से कह कर नेहा का रिश्ता अपने बेटे रीतेश के साथ तय कर दिया था. जल्दी जल्दी में सगाई कर दी थी और शादी की तारीख भी पक्की कर दीं थी. हालांकि नेहा चाहती थी कि वह अभी और पढ़ाई करे लेकिन आशा यह जिद कर रही थी की इतना अछा रिश्ता फिर शायद ना मिले और अगर मिला भी तो पता नहीं कितना दहेज़ देना पडे. खन्ना परिवार बहुत सीधी सादे लोग थे और उनकी ऐसी कोई भी माँग नही थी. रीतेश एक प्रायवेट कंपनी में उंचे ओहदे पर था. उसका छोटा भाई अभी पढ़ रहा था. सगाई के बाद बहुत खुश थे दोनों परिवार. नेहा एक दो बार रीतेश के साथ घूमने भी गयी थी. लेकिन वो ज्यादातर फ़ोन पर ही बातें करते थे। आज रीतेश ने फ़ोन कर के नेहा को एक रेस्तौरांत में चाय पर बुलाया था. उधर खन्ना जीं ने गुप्ता जीं को उनके ऑफिस में फ़ोन कर के एक बुरी खबर सुना डाली थी. उन्होने बताया की उनका बेटा रीतेश शादी के लिए तैयार नहीं है क्योंकि वो पहले से ही एक लडकी से प्यार करता था. उन्हों ने बहुत अफ़सोस जताते हुए कहा की रीतेश ने उन सब को धोके में रखा है इसके लिए वो बहुत शर्मिन्दा हैं. लेकिन रीतेश ने अपने पिता जीं से इतना ज़रूर कहा था की वोह नेहा के साथ शादी ना कर के सब की भलाई कर रहा है।

बाकी की कहानी जो मैंने लिखी 

गुप्ता जीं ने घर आते ही आशा से सब कह डाला. आशा तो सब कुछ अवाक सी हो कर सुनती रही. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था की वो क्या कहे. उसे अब समझ में आया की नेहा जब बाहर से वापस आयी थी तो तब्बीयत खराब होने का बहाना बना कर सीधा अपने कमरे में क्यों चली गयी थी. यह याद करते ही आशा को ऐसा लगा मानो उसके दिल की धड़कन बंद हो गयी हो. वो नेहा के कमरे की तरफ भागी. गुप्ता जीं भी उसके पीछे पीछे भागे । कमरा अन्दर से बंद था और अन्दर से नेहा के रोने की आवाज़ आ रही थी जिसे सुन कर दोनों की जान में जान आयी । वैसे गुप्ता जीं अपनी बेटी को अच्छी तरह जानते थे. उन्हें मालूम था की नेहा भावुक ज़रूर है लेकिन बुजदिल नही।

आशा ने ज्यों ही दरवाज़ा खटखटाने के लिए हाथ बढ़ाया, गुप्ता जी ने उसे रोक दिया. वे दोनों कुछ देर तक बिना आवाज़ किये खडे रहे। नेहा अन्दर अब भी रो रही थी। उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और दबे पाँव वापस लौट आये। गुप्ता जी को यह लग रहा था की इस समय नेहा के सामने जा कर उस से कुछ पूछना, जलती आग मे घी डालने के समान होगा । उन्हों ने आशा से कहा की जब तक नेहा खुद बात नही छेड़ती वे उस से कुछ नहीं पूछेंगे. उन्हें असलियत तो मालूम हो ही चुकी थी।थोड़ी देर बाद नेहा ने कमरे का दरवाज़ा खोल दिया , लेकिन वो बाहर नहीं आयी, और बिस्तर पर औंधे मुँह लेटी रही. आशा का दिल बार बार चाह रहा था की वो अपनी बेटी को गले से लगा कर फूट फूट कर रो दे. रात में आशा एक दो बार उसके कमरे में गयी भी । अखिर माँ का दिल था। नेहा अब सो गयी थी।

आशा ने तो सारी रात करवटें बदलते ही काटी। वह रात में कई बार नेहा के कमरे में गयी . नेहा गहरी नीद सो गयी थी . दूसरे दिन सुबहा जब वे लोग जागें तो नेहा रसोयी में चाय बना रही थी. थोड़ी देर में वो चाय की ट्रे लेकर उनके कमरे में आयी. नेहा की आंखों से ऐसा ज़रूर लग रहा था की रात वह बहुत रोई थी , लेकिन अब उसके चहरे पर दुःख का नामों निशाँ भी नहीं था. उसकी आँखों में एक चमक थी, सुबह की धूप की तरह. नेहा ने मुस्कुराते हुये दोनों को प्रणाम किया. यह देख कर गुप्ता जीं का चेहरा खिल उठा. उन्हों ने मुस्कुराते हुये आशा की तरफ देखा. आशा को कुछ समझ तो नहीं आया लेकिन उन दोनों को मुस्कुराते देख कर वो भी खुश हो गयी. गुप्ता जीं नेहा की मनोस्थिती को अच्छी तरह से समझ रहे थे । उसने कल की घटना और उसके बाद की वेदना को रात के अँधेरे की तरह पीछे छोड़ दिया था. आज उसने जीवन को एक चुनौती समझ कर स्वीकार कर लिया था. उसने कुछ कर दिखाने का निर्णय ले लिया था. चाय के बाद जब नेहा स्नान इत्यादी करने गयी तो गुप्ता जीं ने आशा को सब समझा दिया. इसके बाद इस बात का परिवार में ज़िक्र तक भी नहीं हुआ. जब भी कोई रिश्तेदार या पड़ोसी नेहा की शादी के बारे में बात करते तो उन्हें यह कह कर टाल देते की नेहा अभी और पढ़ाई करना चाहती है. गुप्ता और खन्ना परिवारों का मिलना जुलना लगभग बंद हो गया था.

नेहा ने एम् ए में एडमिशन ले लिया. दो साल की कडी मेहनत के बाद उसने एक बार फिर से अव्वल दर्जा हांसिल किया. उसके बाद उसने सिविल सेर्विसस के लिए परीक्षा दीं. रिजल्ट आने पर उसका नाम पहले बीस प्रतियाशिओं में था।

***

आज नेहा और उसके परिवार के लिए बहुत ख़ुशी का दिन था. नेहा आयी ए एस का प्रशिक्षण पूरा कर के अपने परिवार से मिलने जा रही थी। दिल्ली - बोम्बे फ़्लाइट में बैठी वह एक मेगजीन के पन्ने पलट रही थी । माता पिता से मिलने को कितना बेचैन हो रहा था उसका दिल । आज उसे खुद पर बहुत गर्व महसूस हो रहा था । उसने ना केवल अपने माता पिता की इच्छा पूर्ती ही कर दिखायी थी मगर उस से कहीं आगे की मंज़िल भी हांसिल कर ली थी । चार साल पहले होने वाली सगाई की
वह एक बुरा सपना समझ कर भूल चुकी थी.

“एक्स्क्यूस मी ”

तभी किसी आवाज़ ने नेहा को चौंका दिया । उसने जब मेगजीन हटा कर देखा तो उसे लगा मानों उसने किसी बिजली के तार को छू दिया हो । रीतेश एक हाथ मे ब्रीफ केस लटकाए और दुसरे में बोर्डिंग पास पकड़े खड़ा नेहा की तरफ देख रहा था । चहरे पर हलकी सी मुस्कराहट थी । उसने नेहा के साथ वाली सीट की तरफ इशारा करते हुए कहा “ कितना सौभाग्य है मेरा की आप के साथ सफ़र करने का मौका मिल रहा है ।” नेहा ने पहले तो सोचा की एयर होस्टेस को बुला कर अपनी सीट बदली करवा ले , लेकिन नहीं , वो अब पहले वाली भावुक नेहा नहीं थी. वह रीतेश जैसे पुरषों का सामना अच्छी तरह से करना जानती थी.

“ कहो नेहा कैसी हो ” रीतेश ने अपना ब्रीफ केस ऊपर लग्गेज केबिन में रखा और बैठते ही बात चीत का दौर शुरू कर दिया.

“ अच्छी हूँ ” नेहा ने मेगजीन पढ़ते पढ़ते ही जवाब दिया.

“ ट्रेनिंग कैसी रही. मसूरी में तो मौसम बहुत सुहाना रहा होगा ” रीतेश ने अपनी सेफ्टी बेल्ट लगाते हुए कहा ।
“ ओह तो आपको सब मालूम है ”
रीतेश ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया.
“आप कहिये आप की गृहस्थी कैसी चल रही है ” नेहा की आवाज़ में थोडा व्यंग था
“ अच्छी है, मम्मी पापा ठीक है और छोटू अभी पढ़ रहा है. एम् बी ए में एडमिशन लिया है उसने ”. प्लेन ने टैक्सी करना शुरू कर दिया था और रीतेश उस एअर होस्टेस की तरफ धयान से देख रह था जो की इशारों से सुरक्षा संबधी नियम बता रही थी.
“ और आपकी पत्नी ” नेहा ने कनखियों से एक बार रीतेश की तरफ देखा और फिर खिड़की में से बाहर जमीन को पीछे छूट ते हुए देखने लगी.
“कैसी पत्नी, क्या कभी कंवारे पुर्षों की भी पत्निया सुनी हैं ?”

नेहा यह सुन कर चौंक गयी

“ तो क्या आपने अपनी प्रेमिका से शादी नही की ” नेहा ने मेगजीन का पन्ना पलट कर कहा.

“ जीं नहीं, लेकिन अब ज़रूर करना चाहूँगा, अगर प्रेमिका मान जाये तो ”

“ क्या मतलब,” नेहा ने मेगजीन बंद करके पहली बार रीतेश की आंखों से आंखें मिलाते हुए गम्भीरता से देखा.

लेकिन इस से कंहीं अधिक गम्भीरता रीतेश के चहरे पर नज़र आ रही थी. उसने कहना शुरू किया।

“ हमारी सगायी के बाद तुमसे जब एक दो बार बात हुयी तो मुझे ऐसा लगा मानो तुम और तुम्हारे पापा चाहते थे की तुम अभी और पढ़ाई करो. लेकिन रिश्ता तय हो जाने के बाद शादी भी जल्दी में तय की जा रही थी. मुझे यह भी पता चल गया था की तुम पढने में बहुत लायक हो. ऎसी स्थिती में तुम्हारी शादी करना तुम्हारे पैरों में जंजीर डालने के समान होता. शादी के बाद अक्सर औरतें गृहस्थी में उलझ कर रह जाती हैं. लेकिन मेरे सामने बड़ा प्रश्न यह था की इस शादी को रोका कैसे जाये. केवल मेरे या तुम्हारे कहने से हमारे परिवार वाले शायद ना मानते. इस लिए मुझे झूठ का सहारा लेना पड़ा. मुझे मालूम था की इस बात से तुम्हारे दिल को बहुत चोट पहुँचेगी , लेकिन अक्सर देखा गया है की चोट खाया हुआ इन्सान अगर कोई प्रण कर ले तो उसे फिर कोई नहीं रोक सकता ”
यह सब सुन कर नेहा का मुँह तो खुला ही रह गया. चुप चाप बुत सी बनी वेह रीतेश की आँखों में देख रही थी. उनमे उसे सच्चाई की झलक नज़र आ रही थी. रीतेश ने थोडा रूक कर फिर कहना शुरू किया।

“ और उस दिन के बाद मैं तुम्हें एक एक कदम आगे बढ़ता हुआ देखता रहा हूँ. मेरे माता पिता ने मुझे मेरी प्रेमिका के साथ मिलने और उस से शादी करने को कयी बार कहा, जिसे मैं यह कह कर टालता रह की वह अभी पढ़ रही है. लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम था की मेरी प्रेमिका और कोई नहीं बल्कि तुम ही हो और जिसका मैं अब भी इंतज़ार कर रहा हूँ ”.

टेक ऑफ़ के लिए केबिन की बत्तियां धीमी कर दीं गयी थी नेहा की जुबां को कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिल रहे थे.
प्लेन टेक ऑफ़ कर चुका था और सफ़ेद बादलों को चीरता हुआ नीले आकाश में एक आज़ाद पंछी की तरह आगे बढ रहा था।
नेहा को मालूम नही कि कब उसने अपना हाथ धीरे से रितेश के हाथ में थमा दिया था.

Saturday, May 05, 2007

अपने पराये

( यह कहानी मैंने 1973 में शिमला में अपने कालेज मेगजीन के लिए लिखी थी। मुझे कहानी का आख़िरी वाक्य नहीं सूझ रहा था जो की हमारे अध्यापक प्रोफेसर अवतार सिंह ने सुझाया था । )


सुरेश तेज़ी से टाईप राईटर पर उंगलियां चला रहा था। बार बार उसकी नज़र दीवार घड़ी पर जा रही थी । आज सुबह ही उसने अपने सेक्शन अधिकारी से कार्यालय जल्दी छोड़ कर जाने की अनुमति ले ली थी। उसे शाम तक शिमला पहुंचना था । कल जब वह दफ्तर से घर पहुंचा था तो उसका मकान मालिक दरवाज़े पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था। सुरेश पिछले कई महीनो से मकान का किराया नहीं दे पाया था। नौकरी अभी पक्की नही हुई थी और वेतन बहुत कम मिलता था। घर में बूढ़े माँ बाप थे जो की अक्सर बीमार रहते थे। घर का खर्चा बहुत मुश्किल से चलता था। उस दिन मकान मालिक ने उसे धमकी दी थी की या तो वह मकान का किराया चुका दे या फिर घर खाली कर दे। सुरेश पिछली रात ठीक से सो भी नहीं पाया था। कहाँ से जुटा पायेगा वह २०००/- रूपये। उसके कोई और सगे संबंधी भी तो नही थे उस शहर में, जिनसे वो मदद माँग सके। घूम फिर कर उसका ध्यान बुआ जी की तरफ जाता था जो की शिमला में रहती थीं। सुरेश के पिता जी का अपनी बहन के साथ इतना मिलना जुलना नहीं था और सुरेश पिछले पांच साल में एक आध बार ही उनके यहाँ गया था। फूफा जी का वहां पर अच्छा कारोबार था। वे बड़ी बड़ी इमारतें बनाने का ठेका लेते थे। वैसे सुरेश और उसके पिता जी ने अभी तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया था लेकिन वो इस बार बहुत लाचार हो गया था। और फिर अपने ही तो थे वे लोग कोई पराये तो नहीं। यही सोच कर उसने फैसला किया था की वो शिमला जा कर बुआ जी से मदद मांगेगा।

सुरेश ने अपना बैग उठाया और ऑफिस से निकल गया। शाम होते होते बस शिमला जा पहुंची। बुआ जी का घर पहाड़ी की ढलान पर बस्स स्टैंड से ही दिखायी देता था लेकिन चल कर जाने में काफी समय लग जाता था। देवदार के नुकीले पत्तों में से छान कर आ रही सांझ की धुप में लाल छत वाली हरे रंग की कोठी दूर से ही दिखायी दे रही थी।

बुआ जी का वफादार नौकर शंकर सुरेश को गेट पर ही मिल गया। लेकिन इस बार उसने सुरेश को पहचानने में थोड़ी देर लगा दी। शायद कम रौशनी का असर था या फिर बुढ़ापे का लेकिन पहचानते ही उसने लपक कर सुरेश से उसका बैग पकड़ लिया। बुआ जी और फूफा जी घर पर ही थे और शंकर उसे सीधा उनके कमरे में ही ले गया।


" अरे आओ सुरेश बेटा, तुमने तो आने की खबर भी नहीं की" सुरेश ने दोनों के पैर छू कर प्रणाम किया " हाँ आंटी अचानक ही आना पड़ गया" सुरेश ने कमरे में इधर उधर नज़र दौडाते हुये कहा मानो वह अपने बैठने के लिए कुछ कम आराम दायक जगह ढूँढ रहा हो। बहुत कीमती फर्नीचर और कार्पेट बिछा हुआ था। फूफा जी दीवान पर लेटे किसी मैगजीन के पन्ने पलट रहे थे। वे अक्सर बहुत कम बोलते थे। सुरेश ने कोने में रखा एक बेंत का मूढा थोडा कार्पेट से पीछे सरकाया और उस पर सिकुड़ कर बैठ गया। बस में सफ़र करने के बाद उसके जूतों और कपड़ों पर धूल जम गयी थी।

"घर पर सब खैरियत तो है? भाई साहब और भाभी जी कैसी हैं? आओ, मेरे पास आकर बैठो"। बुआ जी ने अपने पास वाले सोफा की तरफ इशारा करते हुए कहा। यह सुन कर फूफा जी ने मैगजीन चहरे के सामने से हटा कर पहले सुरेश के जूतों की तरफ देखा फिर कार्पेट और सोफा की तरफ और फिर बुआ जी की तरफ। वे बिना कुछ बोले फिर से मैगजीन पढने लग गए।
" हाँ आंटी घर पर तो सब ठीक से हैं" सुरेश ने फूफा जी का इशारा समझते हुए अपनी जगह बदलने की कोई कोशिश नहीं की। " अच्छा मैं पहले हाथ मुँह धो लेता हूँ फिर बातें करेंगे"। यह कह कर वह वहां से चला गया। शंकर ने तब तक उसके लिए गेस्ट रूम खोल दिया था। रात के खाने के लिए शंकर जब उसे बुलाने गया तो सुरेश अपनी डायरी में कुछ लिख रह था। वह बार बार यही सोच रहा था की वह पैसे मांगने की बात कैसे करेगा। " सुरेश बाबू चलो खाना तैयार हो गया है" शंकर ने दरवाज़े का पर्दा ठीक से सटाते हुए कहा। " आओ शंकर काका , कहो कैसे हो " सुरेश ने डायरी बंद करके मेज़ की दराज़ में रखते हुए कहा।
" बस सुरेश बाबू ठीक है, आप तो बहुत अर्से बाद आये हो। मेरा तो अब यहाँ पर दिल नही लगता, जब से बच्चों को होस्टल वाले स्कूल में भेजा है। साहब और मेम साहब तो सारा दिन बाहर रहते हैं फिर घर में कुछ खास काम भी नही होता। इतने बडे घर में कभी कभी डर सा लगने लगता है। कभी सोचता हूँ अपने गांव लॉट जाऊं मगर किसके पास जाऊँगा, मेरा तो कोई भी नहीं" शंकर ने अपने कंधे पर रखे गमछे से अपना माथा पोंछते हुए कहा।
" अरे ऐसा क्यों कहते हो काका, हम सब तुम्हरे ही तो हैं।"
" हाँ बाबू वो तो ठीक है लेकिन फिर भी अपने तो अपने ही होते हैं, अच्छा चलो खाना ठण्डा हो जाएगा"।

खाने की मेज़ पर कुछ खास बात नही हुई, एक आध बार बुआ जी ने सुरेश की नौकरी के बारे में पूछा। " वास्तव मे आंटी जी" सुरेश ने साहस बटोर कर बात शुरू की " मैं आपसे कुछ रुपयों की मदद लेने आया हूँ" और फिर उसने सारी आप बीती कह सुनाई, और कहा की वह यह दो हज़ार रूपये थोड़े थोड़े कर के कुछ समय में लोटा देगा।
खाने के बाद वह थोडा टहलने के लिए निकल गया। वापस आते समये वह जब बरामदे से गुज़र रह था तो उसे फूफा जी की आवाज़ दी।

" अब इन लोगों ने हमे समझ क्या रखा है, जो देखो वो पैसे मांगने चला आता है.अगर किराया नही दिया जाता तो घर क्यों ले रखा है, किसी धरम शाला में क्यों नही रह जाते। ओर फिर हमारे पास रूपये पेड़ों से तो झाड़ते नही"।
सुरेश को ऐसा लगा मानो उसके कानो में कोई गरम पिघला हुआ सीसा डाल रहा हो। वह अपने कमरे तक तो पहुंच गया पर उसका अन्दर जाने को मन नही कर रह था। इतने में उसे शंकर आता हुआ दिखाई दिया। उसने खुद को सँभालते हुए कहा, " शंकर काका मुझे सुबह जल्दी जगा देना, पहली बस से वापस जाना है"

और वह रात भी सुरेश ने करवटें बदलते हुए काटी। शंकर ने सुरेश को सुबह कहे गए समये पर जग दिया। सुरेश नहा धो कर तैयार हो गया। उसने रात ही बुआ जी के नाम चिठी लिख दी थी जिसमे उसने लिखा की उसने फूफा जी की बातें सुन ली थी। उसे मालूम हो गया था की वे उसकी मदद नही कर पायेंगे। इसलिये वह उनेह बिना मिले जा रह था ताकी बुआ जी को शर्मिंदा ना होना पडे। उसने वह चिठी शंकर की ओर बढ़ाते हुए कहा " अच्छा काका मैं चलता हूँ, यह चिट्ठी बुआ जी को दे देना"।


" ठहरो सुरेश बाबू , मैं भी आपके साथ बस अड्डे तक चलता हूँ, वापसी में सब्जी भाजी भी लेता हुआ आऊंगा , वैसे भी आज रविवार है और साहब लोग जल्दी नही जागेंगे" यह कह कर वो अपने कमरे मैं गया और थैला लेकर आ गया।


शंकर पर बुढ़ापा ज़रूर आ गया था लेकिन फिर भी वो काफी तेज़ क़दमों से सुरेश के साथ चल रहा रह था। वैसे भी रास्ता ढलान का था। रास्ते में दोनों में कोई खास बात नही हुई। बस अड्डे पर पहुच कर शंकर ने थैले में से एक रुमाल निकला जिस में कुछ बंधा हुआ था। वह उसने सुरेश की तरफ बढ़ाते हुए कहा " सुरेश बाबू ये कुछ पैसे है, इन्हें रख लो। मैंने अपने वेतन में से बचा कर जम किये हैं।"


सुरेश आंखें फाड़ फाड़ कर कभी शंकर की तरफ और कभी उस रुमाल की तरफ देख रह था


" देखो सुरेश बाबू। मुझे मालुम है आप यहाँ रुपयों की मदद मांगने आये थे। मैंने रात आप लोगों की सारी बातें सुन ली थी। हर इन्सान पर अछा बुरा समये आता है। इस समये आप को रुपयों की ज़रूरत है जिसके लिए आप इतनी दूर आये हो। मेरे पास यह २५००/- रूपये है जो इस वक्त मुझे नही चाहिऐ। इस लिए मना मत करना" यह कहते हुए उसने सुरेश के हाथ में ज़बरदस्ती वह रुमाल थमा दिया।


सुरेश की बस लग चुकी थी और यात्री बस में बैठ रहे थे। सुरेश अपने आंसुओं को रोक नही पाया और उसने शंकर को गले से लगा लिया।

शिमला से वापसी का सफ़र ना जाने कैसे खतम हो गया यह सुरेश को ज़रा भी महसूस नही हुआ। वह तो बस सारे सफ़र यही सोचता रह की की अपनों की हद्द कहा तक है और पराये की सीमा कहॉ से शुरू होती है!!!

Monday, April 30, 2007

यही तो अब तक होता आया

मैंने तो सब सच ही कहा

लेकिन उन्हें यकीं ना आया

लगा दिया इलज़ाम ही उल्टा

बोले ये सब कहॉ चुराया


आंखों में आंसू जो देखे

बोले ये घड़ियाली हैं

उन अश्कों को क्या बोलेंगे

दिल जो अब तक रोता आया


मन ही मन में मैंने सोचा

इनका नही कुसूर है ये

मेरे सच के साथ हमेशा

यही तो अब तक होता आया

Saturday, April 21, 2007

हाथ में तेरा हाथ नहीं

कब तुमने यह हाथ छुडाया

इसका तो एहसास नहीं

लेकिन होश आया तो जाना

हाथ में तेरा हाथ नहीं


दुनिया भर की एशो-इशरत

यह मौसम यह बागो फूल

कुछ भी नहीं हैं इनके माहने

जब तक तेरा साथ नहीं

फांसले बढते रहे

थी तमन्ना तुमको भी

हम आरजू करते रहे

चल रहे थे साथ

लेकिन फांसले बढते रहे


कुछ कहा, ना कुछ सुना

लेकिन ख्यालों मे ही हम

एक दूजे के लिए

कुछ सपन से घडते रहे


एक दिन इक मोड आया

जिन्दगी की राह पे

मुड़ गए हम अपनी अपनी

मुखतलिफ़ दिशाओं में


खो गए फिर एक बार हम

दुनिया की इस भीड़ में

सफ़र तै करने कि खातिर

बस यूंहीं चलते रहे


चल रहे थे साथ

लेकिन फांसले बढते रहे

Saturday, March 24, 2007

दीवाना बन गया

देखी अदा जो तेरी तो

दीवाना बन गया

रोशन हुई शमा तो मैं

परवाना बन गया


जब भी चला मैं संग

तेरा हाथ थाम के

सारे जहाँ कि नज़रों का

निशाना बन गया


तिनके उठा के रख दिए

यूँ खेल खेल में

लेकिन अरे यह देखो

आशियाना बन गया


सब दे रहे हैं दोस्त

यही बार बार तान्हे

था कल तलक 'बल' अपना

अब बेगाना बन गया