( यह कहानी मैंने 1973 में शिमला में अपने कालेज मेगजीन के लिए लिखी थी। मुझे कहानी का आख़िरी वाक्य नहीं सूझ रहा था जो की हमारे अध्यापक प्रोफेसर अवतार सिंह ने सुझाया था । )
सुरेश तेज़ी से टाईप राईटर पर उंगलियां चला रहा था। बार बार उसकी नज़र दीवार घड़ी पर जा रही थी । आज सुबह ही उसने अपने सेक्शन अधिकारी से कार्यालय जल्दी छोड़ कर जाने की अनुमति ले ली थी। उसे शाम तक शिमला पहुंचना था । कल जब वह दफ्तर से घर पहुंचा था तो उसका मकान मालिक दरवाज़े पर खड़ा इंतज़ार कर रहा था। सुरेश पिछले कई महीनो से मकान का किराया नहीं दे पाया था। नौकरी अभी पक्की नही हुई थी और वेतन बहुत कम मिलता था। घर में बूढ़े माँ बाप थे जो की अक्सर बीमार रहते थे। घर का खर्चा बहुत मुश्किल से चलता था। उस दिन मकान मालिक ने उसे धमकी दी थी की या तो वह मकान का किराया चुका दे या फिर घर खाली कर दे। सुरेश पिछली रात ठीक से सो भी नहीं पाया था। कहाँ से जुटा पायेगा वह २०००/- रूपये। उसके कोई और सगे संबंधी भी तो नही थे उस शहर में, जिनसे वो मदद माँग सके। घूम फिर कर उसका ध्यान बुआ जी की तरफ जाता था जो की शिमला में रहती थीं। सुरेश के पिता जी का अपनी बहन के साथ इतना मिलना जुलना नहीं था और सुरेश पिछले पांच साल में एक आध बार ही उनके यहाँ गया था। फूफा जी का वहां पर अच्छा कारोबार था। वे बड़ी बड़ी इमारतें बनाने का ठेका लेते थे। वैसे सुरेश और उसके पिता जी ने अभी तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया था लेकिन वो इस बार बहुत लाचार हो गया था। और फिर अपने ही तो थे वे लोग कोई पराये तो नहीं। यही सोच कर उसने फैसला किया था की वो शिमला जा कर बुआ जी से मदद मांगेगा।
सुरेश ने अपना बैग उठाया और ऑफिस से निकल गया। शाम होते होते बस शिमला जा पहुंची। बुआ जी का घर पहाड़ी की ढलान पर बस्स स्टैंड से ही दिखायी देता था लेकिन चल कर जाने में काफी समय लग जाता था। देवदार के नुकीले पत्तों में से छान कर आ रही सांझ की धुप में लाल छत वाली हरे रंग की कोठी दूर से ही दिखायी दे रही थी।
बुआ जी का वफादार नौकर शंकर सुरेश को गेट पर ही मिल गया। लेकिन इस बार उसने सुरेश को पहचानने में थोड़ी देर लगा दी। शायद कम रौशनी का असर था या फिर बुढ़ापे का लेकिन पहचानते ही उसने लपक कर सुरेश से उसका बैग पकड़ लिया। बुआ जी और फूफा जी घर पर ही थे और शंकर उसे सीधा उनके कमरे में ही ले गया।
" अरे आओ सुरेश बेटा, तुमने तो आने की खबर भी नहीं की" सुरेश ने दोनों के पैर छू कर प्रणाम किया " हाँ आंटी अचानक ही आना पड़ गया" सुरेश ने कमरे में इधर उधर नज़र दौडाते हुये कहा मानो वह अपने बैठने के लिए कुछ कम आराम दायक जगह ढूँढ रहा हो। बहुत कीमती फर्नीचर और कार्पेट बिछा हुआ था। फूफा जी दीवान पर लेटे किसी मैगजीन के पन्ने पलट रहे थे। वे अक्सर बहुत कम बोलते थे। सुरेश ने कोने में रखा एक बेंत का मूढा थोडा कार्पेट से पीछे सरकाया और उस पर सिकुड़ कर बैठ गया। बस में सफ़र करने के बाद उसके जूतों और कपड़ों पर धूल जम गयी थी।
"घर पर सब खैरियत तो है? भाई साहब और भाभी जी कैसी हैं? आओ, मेरे पास आकर बैठो"। बुआ जी ने अपने पास वाले सोफा की तरफ इशारा करते हुए कहा। यह सुन कर फूफा जी ने मैगजीन चहरे के सामने से हटा कर पहले सुरेश के जूतों की तरफ देखा फिर कार्पेट और सोफा की तरफ और फिर बुआ जी की तरफ। वे बिना कुछ बोले फिर से मैगजीन पढने लग गए।
" हाँ आंटी घर पर तो सब ठीक से हैं" सुरेश ने फूफा जी का इशारा समझते हुए अपनी जगह बदलने की कोई कोशिश नहीं की। " अच्छा मैं पहले हाथ मुँह धो लेता हूँ फिर बातें करेंगे"। यह कह कर वह वहां से चला गया। शंकर ने तब तक उसके लिए गेस्ट रूम खोल दिया था। रात के खाने के लिए शंकर जब उसे बुलाने गया तो सुरेश अपनी डायरी में कुछ लिख रह था। वह बार बार यही सोच रहा था की वह पैसे मांगने की बात कैसे करेगा। " सुरेश बाबू चलो खाना तैयार हो गया है" शंकर ने दरवाज़े का पर्दा ठीक से सटाते हुए कहा। " आओ शंकर काका , कहो कैसे हो " सुरेश ने डायरी बंद करके मेज़ की दराज़ में रखते हुए कहा।
" बस सुरेश बाबू ठीक है, आप तो बहुत अर्से बाद आये हो। मेरा तो अब यहाँ पर दिल नही लगता, जब से बच्चों को होस्टल वाले स्कूल में भेजा है। साहब और मेम साहब तो सारा दिन बाहर रहते हैं फिर घर में कुछ खास काम भी नही होता। इतने बडे घर में कभी कभी डर सा लगने लगता है। कभी सोचता हूँ अपने गांव लॉट जाऊं मगर किसके पास जाऊँगा, मेरा तो कोई भी नहीं" शंकर ने अपने कंधे पर रखे गमछे से अपना माथा पोंछते हुए कहा।
" अरे ऐसा क्यों कहते हो काका, हम सब तुम्हरे ही तो हैं।"
" हाँ बाबू वो तो ठीक है लेकिन फिर भी अपने तो अपने ही होते हैं, अच्छा चलो खाना ठण्डा हो जाएगा"।
खाने की मेज़ पर कुछ खास बात नही हुई, एक आध बार बुआ जी ने सुरेश की नौकरी के बारे में पूछा। " वास्तव मे आंटी जी" सुरेश ने साहस बटोर कर बात शुरू की " मैं आपसे कुछ रुपयों की मदद लेने आया हूँ" और फिर उसने सारी आप बीती कह सुनाई, और कहा की वह यह दो हज़ार रूपये थोड़े थोड़े कर के कुछ समय में लोटा देगा।
खाने के बाद वह थोडा टहलने के लिए निकल गया। वापस आते समये वह जब बरामदे से गुज़र रह था तो उसे फूफा जी की आवाज़ दी।
" अब इन लोगों ने हमे समझ क्या रखा है, जो देखो वो पैसे मांगने चला आता है.अगर किराया नही दिया जाता तो घर क्यों ले रखा है, किसी धरम शाला में क्यों नही रह जाते। ओर फिर हमारे पास रूपये पेड़ों से तो झाड़ते नही"।
सुरेश को ऐसा लगा मानो उसके कानो में कोई गरम पिघला हुआ सीसा डाल रहा हो। वह अपने कमरे तक तो पहुंच गया पर उसका अन्दर जाने को मन नही कर रह था। इतने में उसे शंकर आता हुआ दिखाई दिया। उसने खुद को सँभालते हुए कहा, " शंकर काका मुझे सुबह जल्दी जगा देना, पहली बस से वापस जाना है"
और वह रात भी सुरेश ने करवटें बदलते हुए काटी। शंकर ने सुरेश को सुबह कहे गए समये पर जग दिया। सुरेश नहा धो कर तैयार हो गया। उसने रात ही बुआ जी के नाम चिठी लिख दी थी जिसमे उसने लिखा की उसने फूफा जी की बातें सुन ली थी। उसे मालूम हो गया था की वे उसकी मदद नही कर पायेंगे। इसलिये वह उनेह बिना मिले जा रह था ताकी बुआ जी को शर्मिंदा ना होना पडे। उसने वह चिठी शंकर की ओर बढ़ाते हुए कहा " अच्छा काका मैं चलता हूँ, यह चिट्ठी बुआ जी को दे देना"।
" ठहरो सुरेश बाबू , मैं भी आपके साथ बस अड्डे तक चलता हूँ, वापसी में सब्जी भाजी भी लेता हुआ आऊंगा , वैसे भी आज रविवार है और साहब लोग जल्दी नही जागेंगे" यह कह कर वो अपने कमरे मैं गया और थैला लेकर आ गया।
शंकर पर बुढ़ापा ज़रूर आ गया था लेकिन फिर भी वो काफी तेज़ क़दमों से सुरेश के साथ चल रहा रह था। वैसे भी रास्ता ढलान का था। रास्ते में दोनों में कोई खास बात नही हुई। बस अड्डे पर पहुच कर शंकर ने थैले में से एक रुमाल निकला जिस में कुछ बंधा हुआ था। वह उसने सुरेश की तरफ बढ़ाते हुए कहा " सुरेश बाबू ये कुछ पैसे है, इन्हें रख लो। मैंने अपने वेतन में से बचा कर जम किये हैं।"
सुरेश आंखें फाड़ फाड़ कर कभी शंकर की तरफ और कभी उस रुमाल की तरफ देख रह था
" देखो सुरेश बाबू। मुझे मालुम है आप यहाँ रुपयों की मदद मांगने आये थे। मैंने रात आप लोगों की सारी बातें सुन ली थी। हर इन्सान पर अछा बुरा समये आता है। इस समये आप को रुपयों की ज़रूरत है जिसके लिए आप इतनी दूर आये हो। मेरे पास यह २५००/- रूपये है जो इस वक्त मुझे नही चाहिऐ। इस लिए मना मत करना" यह कहते हुए उसने सुरेश के हाथ में ज़बरदस्ती वह रुमाल थमा दिया।
सुरेश की बस लग चुकी थी और यात्री बस में बैठ रहे थे। सुरेश अपने आंसुओं को रोक नही पाया और उसने शंकर को गले से लगा लिया।
शिमला से वापसी का सफ़र ना जाने कैसे खतम हो गया यह सुरेश को ज़रा भी महसूस नही हुआ। वह तो बस सारे सफ़र यही सोचता रह की की अपनों की हद्द कहा तक है और पराये की सीमा कहॉ से शुरू होती है!!!